मैं आज जो लिख रहा हूँ। ये मैं किसी विद्यालय की बुराई नही
कर रहा हूं। मैं अधिकतर स्कूलों की सच्चाई लाने की कोशिश कर रहा हूं। मैं यहां बताना छह रहा हूं कि इन स्कूल कॉलेज वाले सीधे साधे लोगों को गुमराह करके उनसे खूब पैसे वसूलते हैं। कुछ दबंग लोगों ने कॉलेजों को एक धंधा बना लिया है।
मैंने लगभग एक साल लखनऊ में पढाई की। लखनऊ में अधिकतर स्कूल फर्जी है और जो फर्जी नही हैं वे सीधे साढ़े लोगों को गुमराह करते है। वे समझते हैं कि स्कूलों में पढ़ाई नही होती ब बल्कि वहाँ पढाई की बिक्री होती है। ये लोग स्कूलों को धंधा समझते हैं। यहां पर पढ़कर निकलने वाला निर्बल और असहाय हो जाता है।
इस तरह के संस्थान से पढ़कर निकला स्टूडेंट अपने आप को ऐसा महसूस करता है कि जैसे उसका खून किसी जंगली जानवर ने चूस लिया हो और उसे रक्त रहित कर गया हो।
इस हालात में उसे कैसा महसूस हो रहा होगा, यह कौन जान सकता है? क्या आपमें से से किसी के साथ ऐसा हुआ है है?
ठीक ऐसा ही मेरे साथ भी हुआ।
मैं उस समय इतना निर्बल हो चुका था जितना कि आल सोच नही सकते। मुझे तब दूसरे संस्थानों से भी डर लग रहा था। पर मैं यह सोचकर शांत हो जाता की जो होता है वो अच्छे के लिए होता है।
पहली बात ये की किसी गरीब का नाम किसी अच्छे संसथान में लिखता नही। यदि लिख गया तो सौ में से लगभग 20 से 25 केया लिखा बाकी......।
हाँ चलो! यदि कैसे भी लिख गया तो फीस के नाम पर
ये शुल्क , वो शुल्क, केक्रीड़ा शुल्क, फैन शुल्क, लैब शुल्क, छात्रावास शुल्क ........।
पता चला एक दिन भी लैब गये नही, छात्रावास का तो पता नही, पंखे और खेलों का तो ......।
शिक्षण का तो भगवान जाने...।
लड़के ने 15 तारीख को फ़ीस जमा नही की तो नाम कटा, अब उसकी फीस दो। नाम फिर से लिखेगा। अब क्या हुआ लड़का परेशान, घर वाले घर बेचकर झोपड़ पट्टी में और पढाई खा गई.....।
अंततः लड़के ने पढाई छोड़ दी। स्कूल कॉलेज के नाम पर जलन।
अब लड़का अनेक सामाजिक आलोचनाओं से परेशान हो कर कुरीतियाँ अपनाने लगा। व्यसनों से युक्त तनाव से युक्त।
समाज का तो काम है दोषारोपण और आलोचना करना है ही। अब तुम क्यों परेशान हो रहे हो।
साभार :
मेरा संघर्ष : एक आत्मकथा
लेखक - पंकज कुमार